Monday, October 11, 2010

Ek Kona

एक बीता हुआ लम्हा, कुछ संभाल के रक्खी हुई यादें
थोड़े से खट्ठे मीठे पल और बहुत सारी अधूरी उम्मीदें
ये सब इक कोने में कहीं रख के भूल गया था
आज अचानक, मानो वो कोना खुद ही मेरे पास चल के आ गया
और मुझ पे हसने लगा, व्यंग करने लगा
मुझे एहसास दिलाने लगा कि भले ही पंद्रह सालो में सतह ज़रूर अलग सी, चमकदार सी हो गयी है
किन्तु गहराई अब भी उतनी ही अँधेरी है, अधूरी है

बस अब उस अंधकार का, अधूरेपन का एहसास रोजाना रहता है
कभी खुद को बहलाने के लिए इस एहसास को ही प्रगति का नाम दे देता हूँ
कभी आस पास के लोगो पे ताने कस के अपने अधूरेपन को पूरेपन का झूठा नाम दे देता हूँ
लेकिन ऐसे कोने बहुत हैं, जो कभी कभी सामने आ के मुझे पकड़ कर झकझोर देते हैं
और मेरे को मेरे अधूरेपन से रूबरू करा देते हैं

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